Wednesday 22 July 2015

धन-सम्पत्ति के बारे में प्रभु येसु क्या सिखाते हैं?


धन-सम्पत्ति के बारे में प्रभु येसु क्या सिखाते हैं?
प्रभु का यह कहना है कि धनी के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना सुई के नाके से होकर ऊँट के निकलने से अधिक कठिन है (देखिए मत्ती 19:23)। यह मापदण्ड सभी धनियों के लिये लागू है। धन के साथ-साथ सुख लोलुपता बढ़ती है जो प्रलोभन के कारण बनती है। धनी शरीर की वासनाओं की पूर्ति करने के लिए अपने धन का उपयोग करने लगता है। वह कभी तृप्त नहीं होता। जिस मंजिल की वह तलाश करता है, वह एक मरीचिका बनकर उसे पास आते देखकर उससे दूर भागती रहती है। यह उस के लिए असंतोष व निराशा का कारण बनता है। संत पौलुस तिमथी को लिखते हुए कहते हैं, ’’हम न तो इस संसार में कुछ अपने साथ ले आये और न यहाँ से कुछ साथ ले जा सकते हैं। यदि हमारे पास भोजन-वस्त्र हैं, तो हमें इस से संतुष्ट रहना चाहिए। जो लोग धन बटोरना चाहते हैं, वे प्रलोभन और फन्दे में पड़ जाते हैं और ऐसी मूर्खतापूर्ण तथा हानिकर वासनाओं के शिकार बनते हैं, जो मनुष्यों को पतन और विनाश के गर्त्ता में ढकेल देती हैं; क्योंकि धन का लालच सभी बुराईयों की जड़ है। इसी लालच में पड़ कर कई लोग विश्वास के मार्ग से भटक गये और उन्होंने बहुत-सी यंत्रणाएँ झेलीं।’’ (1तिमथी 6:7-10)। धनी ईश्वर पर भरोसा रखने के बजाय अपने धन को ही अपना स्वामी बना लेता है तथा घमण्डी बनता जाता है। संत पौलुस ऐसे लोगों से कहते हैं, ’’इस संसार के धनियों से अनुरोध करो कि वे घमण्ड न करें और नश्वर धन-सम्पत्ति पर नहीं, बल्कि ईश्वर पर भरोसा रखें, जो हमारे उपभोग की सब चीज़ें पर्याप्त मात्रा में देता है। वे भलाई करते रहें, सत्कर्मों के धनी बनें, दानशील और उदार हों। इस प्रकार वे अपने लिए एक ऐसी पूँजी एकत्र करेंगे, जो भविष्य का उत्तम आधार होगी और जिसके द्वारा वे वास्तविक जीवन प्राप्त कर सकेंगे।’’ (1 तिमथी 6:17-19) काथलिक विश्वासियों की यह जिम्मेदारी है कि जैसे-जैसे हमारी अर्थव्यवस्था सुधरती जाती है, हमारे राष्ट्रवासियों को विशेषतः ख्रीस्तीय विश्वासियों को उदारता, संवेदनशीलता तथा दानशीलता में आगे बढ़ने को सिखाये। 


ख्रीस्तीय भाइ-बहनों को किस प्रकार गरीबों की सहायता करनी चाहिए?

गरीबी अब भी भारत देश की एक बड़ी समस्या है। अमीर तथा गरीब के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। इस स्थिति में कलीसिया को गरीबों का पक्ष लेना तथा उनकी उन्नति के लिए परिश्रम करना अनिवार्य है। गरीबों के उद्धार के लिए कलीसिया को हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। हमारी हर योजना में हमें गरीबों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। आदिम कलीसिया में गरीबों का बडा ख्याल रखा जाता था। उदाहरण के लिए, येरुसालेम की कलीसिया बहुत गरीब थी। इसलिए अन्य प्रान्तों के विश्वासी उनके लिये चन्दा इकट्ठा करके भेजते थे (प्रेरित-चरित 11:29-30,15:25-28;16:1-4)। विकास और आर्थिक उन्नति की भाग-दौड़ में ज़रूरतमंद लोगों को भूलना इनसानियत तथा ख्रीस्तीयता के विरुद्ध पाप है। संत योहन कहते हैं, ’’हम प्रेम का मर्म इसी से पहचान गये कि ईसा ने हमारे लिए अपना जीवन अर्पित किया और हमें भी अपने भाइयों के लिए अपना जीवन अर्पित करना चाहिए। किसी के पास दुनिया की धन-दौलत हो और वह अपने भाई को तंगहाली में देखकर उस पर दया न करे, तो उस में ईश्वर का प्रेम कैसे बना रह सकता है।’’ (1 योहन 3:16,17)

येसु के बारह शिष्य कौन-कौन थे?


जब प्रभु येसु शिक्षा देते थे तब उनकी बातें सुनने के लिए भीड़ एकत्र होती थी। उनमें कुछ लोग उनके पीछे-पीछे चलते थे। उन में से उन्होंने बहत्तार शिष्यों को नियुक्त किया और उन्हें सुसमाचार का प्रचार-प्रसार करने हेतु नगरों और गाँवों में भेजा (देखिए लूकस 10:1-12)। अपने शिष्यों में से बारह को उन्होंने प्रेरित नियुक्त किया। उनके नाम इस प्रकार है- पहला, सिमोन, जो पेत्रुस कहलाता है, और उसका भाई अन्द्रेयस; जेबेदी का पुत्र याकूब और उसका भाई योहन; फिलिप और बरथोलोमी; थोमस और नाकेदार मत्ती; अलफ़ाई का पुत्र याकूब और थद्देयुस; सिमोन कनानी और यूदस इसकारियोती, जिसने ईसा को पकड़वाया (देखिये मत्ती 10:2-4)। इनमें से तीन - पेत्रुस, योहन और याकूब को कुछ विशेष अवसरों पर प्रभु के साथ उपस्थित रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे प्रभु के रूपान्तरण (मत्ती 17:1), जैरुस की बेटी की चंगाई (मारकुस 5:37) और प्राणपीड़ा (मत्ती 26:37) के साक्षी थे।






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